वाह रे कुदरत क्या खूब ये तेरी काया है कोई इसको समझ ना पाया है
तूने इस गोलाकार पृथ्वी को क्या खूब तरीके से सजाया है
विविधताओं के रंग भर कर सजगता से मनमोहक भी बनाया है
कही पहाड़ो की ठंडी छाया है तो कही झीलों और झरनो को देख
तेरे इस रचना पे हर किसी का मन इठलाया है
कभी ठंडी हवा की फुहार ने चलकर पेड़ो को सहलाया है
कभी इस बहती गंगा को देख के हमारा ठंडा खून भी गरमाया है
अगर यह पाप मिटाती है तो हम क्यों पाप को होने दे
इस बहते पानी में ही तो हमारा अस्तित्व समाया है
तूने इंसान को बनाया है और इसी ने तुझे सताया है
कुछ ऐसा कर हे प्रभुवर इन सब की अक्ल ठिकाने आये
और तू फिर से अपने रचनाओं के आँचल फैलाए
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