Friday, 21 July 2017

कल्पनाओ की लेहरो में बहे जा रहा था

कल्पनाओ की लेहरो में बहे जा रहा था 
खुद से ही कुछ मै कहे जा रहा था 

कभी  पहाड़ो की चोटी चढ़े जा रहा था 
कभी समंदर में फिर मै बहे जा रहा था 

कभी इस पग  पे मुड़ता फिर उसी मोड़ पे खोता 
ना जाने ये मै किधर जा रहा था 

कभी इस पल को हसता फिर उसी पल को रोता 
कभी उस पर मै हसता कभी खुद पर मै रोता 

मेरी आँखों से आंसू बहे जा रहा था 
मेरा दिल भी मुझसे कुछ कहे जा रहा था 

पर इस दिल की बात ना मै समझ पा रहा था 
और कल्पनाओ की लेहरो में बहे जा रहा था  

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